शुकदेव जी का राजा परीक्षित को आत्मज्ञान देना।।

श्रीमद भागवद पुराण महात्मय का उन्नीसवॉं आध्यय [स्कंध १]

(परीक्षित का श्राप का समाचार सुन सब त्याग, गंगातट पर जाना और शुकादि मुनियों का आना)

दो० सुरसरि तट अभिमन्यु सुत सुनो कथा जिमि जाय।

सोइ चरित पुनीत यह उन्नीसवें अध्याय ॥

* उन्नीसवाँ अध्याय*(परीक्षित का श्राप का समाचार सुन सब त्याग, गंगातट पर जाना और शुकादि मुनियों का आना)दो० सुरसरि तट अभिमन्यु सुत सुनो कथा जिमि जाय।सोइ चरित पुनीत यह उन्नीसवें अध्याय ॥तदन्तर सूत जी कहने लगे कि-राजा परीक्षित को घर पहुंचकर, चेत हुआ कि हाय हाय ! मैंने कैसा नीच कर्म किया। वह ऋषि तो निष्पाप और गूढ़तेज है । हाय ! यह मैंने किया ही क्या ? उसके गले में सांप लपेटा । इस नीच कर्म से मुझको प्रतीत होता है कि कोई बड़ी विपत्ति मुझ पर आने वाली है सो मैं चाहता हूं, कि वह विपत्ति मुझ पर शीघ्र आजाय तो अच्छा है जिससे मुझको योग्य शिक्षा मिल जाय, और मैं फिर कोई ऐसा अपराध न करू । राजा इस तरह शोक सागर में निमग्न था, उधर शमीक ऋषि ने अपना गौरमुख नाम शिष्य राजा के पास भेजा कि मेरे पुत्र ने तुमको शाप दिया है, कि आजके सातवें दिन तुमको तक्षक डसेगा उसे, उसीसे तुम्हारी मृत्यु होगी। राजा इस वाक्य को सुनकर तक्षक की विषाग्नि को बहुत उत्तम समझने लगा, क्योंकि यह अग्नि संसार की विषय वासना में फंसे हुए राजा को विरक्त का कारण होने से मोक्ष का कारण होगी। तदनन्तर जिन वस्तुओं के त्यागने का विचार राजा पहले ही कर चुका था उनको तथा इस लोक और उस लोक दोनों की वासना छोड़कर श्रीकृष्ण के चरणों में चित्त लगाकर निरहार व्रत साधन करने के लिए केवल आधी धोती औढ़े और पहने सर्वत्र त्यागकर गङ्गा तट पर जा बैठा। कौन ऐसा मनुष्य है जिसकी मृत्यु निकट आ पहुँची है और वह श्री गंगाजल का सेवन नहीं करता है। जो गंगा तुलसीदास और श्री कृष्ण की चरणरज वाली है जसे मिलकर अत्यन्त शोभायमान जल के बहाने और जिसका परम पवित्र जल महादेव आदिसे लेकर सब देवताओं को पवित्र करता है। उस समय परीक्षित को अन शन व्रत लेकर गंगा तट पर बैठा सुनकर बहुत से महानुभाव त्रिभुवन पवित्र करने वाले मुनि अपने अपने शिष्य वर्गों सहित संसार को पवित्र करते हुए तीर्थ यात्रा के मन से वहाँ आये। ये संत महात्मा अपने तीर्थों के विचार से स्वयं ही तीर्थों को पवित्र किया करते हैं। इनमें अत्रि, वशिष्ठ च्यवन, अरियुमेमि,भृगु, अंगिरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्र प्रमद, इध्वाह मेधातिथि, देवल, आष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्लाद, मैत्रैय, और्व, कवष, भगवान वेद व्यास और नारदादि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि, राजर्षि, तथा श्ररुणाबिक, अन्य बड़ बड़े महात्मा थे। राजा ने सबको पूजन करके उनको नमस्कार किया। जब ऋषि मुनि आनन्द पूर्वक सुख पूर्वक बैठे हुए, राजा ने फिर तो प्रणाम कर हाथ जोड़कर अपने मन की बात कहा हा हा ! मैं अत्यन्त धन्य हैं क्योंकि मेरे ऊपर सब महात्माओं ने ऐसी दया की है, मैं तो रात दिन विषय वासना में लीन मत्त की भांति अचेत था ऐसे मुझ पापी को भवसागर से बचाने के लिये साक्षात परम ब्रह्म ही ने ब्राह्मण के द्वारा शाप दिया है, जिससे मुझको शीघ्र ही चेत हो गया। हे ब्राह्मणों! इस बात को समझ लीजिये कि मैं सब छोड़कर भगवच्चरणों में चित्त लगाकर आप की और गंगा देवी की शरण हूँ । वह तक्षक आकर मुझको भले ही डस ले परन्तु आप लोग कृष्ण भगवान का संकीर्तन कीजिये जिससे अनन्त भगवान में मेरी प्रगाढ़ भक्ति होवे पर जिस योनि में मुझे जन्म लेना पड़े तहां साधू महात्माओं में मेरा स्नेह बना रहे। इस तरह ऋषियों के सामने अपना अभिप्राय प्रगट करके राजा गंगा जी के कहने किनारे पर पूर्वाभिमुख कुशा बिछाकर उत्तर की ओर मुख करके निश्चित होकर बैठ गया क्योंकि राज्य का भार तो पहले ही अपने पुत्र को दे आया था। जब राजा इस रीति से अनसन व्रत धारण किये है बैठा था तब स्वर्ग में बैठे हुए देवगण राजा की प्रसंसा करके पृथ्वी पर बार बार फूलों की वर्षा करने लगे और आनन्द के साथ दुन्दुभी बजाने लगे। वे परोपकार करने में मन रखने वाले सभी महात्मा राजा की बुद्धि और धैर्य की प्रशंशा करके उत्तमोत्तम गुणों से युक्त भगवान के गुणों को कहने लगे। हे राजऋषि ! यह आप में कुछ विचित्र बात कहीं है क्योंकि आप तो श्रीकृष्ण भगवानके परम सेवक है। उस ही भगवचच्ण के निकट पहुँचने की इच्छा से अपने ऐसे राज सिंहासन को शीघ्र त्याग दिया जिसको बड़े महिपाल सिर नवाते हैं । ऐसे कहकर सब ऋषि मुनि आपस सलाह करने लगे। जब तक भगवद्ध तो में प्रधान यह राजा अपने इस राह को त्यागकर शोक मोहादि रहित वैकुण्ठ लोक को न चला जाय, तब तक हम यही बैठे रहेंगे। तब तो राजा परी क्षित उस अमृतमय, गम्भोर, अर्थ युक्त, पक्षपात रहित ऋषि लोगों की सत्य वाणी को सुनकर नमस्कार करके बोले, मुनिवर! आपको परोपकार के अतिरिक्त और कोई दूसरा काम ही नहीं है इस लोक और उस लोक में केवल परोपकार करना ही आपका स्वभाव है । हे विभो! इसी बात पर विश्वास करके पूछने के योग्य बात मैं पूछता हूँ कि जिस मनुष्य की मृत्यु निकट आ पहुँची है उस को क्या करना चाहिये। उस शुद्ध कृत्य को श्राप लोग विचार कर मेरे सामने कहिये । राजा के इस प्रश्न को सुनकर मुनि आपस में विवाद करने लगे। कोई तो कहता था यज्ञ करना चाहिये, कोई तप करने के लिए कहता था इसी तरह कोई दान, कोई धर्म और कोई योग करना बतलाता था । इस तरह यहां तो विवाद हो ही रहा था, इतने ही में दैव योग से पृथ्वी पर विचरते हुए अपेक्षा से हीन आश्रमों के चिह्नों से रहित और अपने आत्मा में सन्तुष्ट व्यासजी के पुत्र शुकदेव जी चले आये। बहुत से स्त्री बालक इनको चारों ओर से घेरे हुए चले आते थे और आपने अवधूत का वेश भारण कर रखा था। शुकदेव जी की अवस्था केवल सोलह वर्ष की थो शंख के समान त्रिवली युक्त कण्ठ था। वक्षस्थल बहुत ऊँचा और चौड़ा था,नाभि बहुत गंभीर और पीपल के दल के समान मस्तक पर त्रिवली पड़ी थी शरीर पर कोई कोपीन तक न थी। बाल घुघुर वाले चारों ओर बिखर रहे थे। जानुपर्यन्त लम्बी - लम्बी भुजा श्री नारायण के समान कान्तिमान थे । शरीर का श्यामवर्ण अत्यन्त ही मनोहर था, उनकी युवा अवस्था शरीर कीकान्ति और मन्द मुस्कान देखकर स्त्री मोहित हो जाती थी। ऐसे तेजयुक्त शुकदेव जी को आया है देखकर मुनि लोग सत्कार के लिये अपने आसनों से उठ खड़े हो। तब राजा आये हुए अतिथि श्री शुकदेवजी का अतिथि सत्कार करके चरणों में शिर झुकाकर उनको एक बड़े ऊँचे आसन पर ले गये और पूजा की। उस समय सब अज्ञानी बालक पुरुष चले गये थे। वहाँ उन बड़े-बड़े देवऋषि, राजऋषि, ब्रह्मर्षि आदि अनेक ऋषि महर्षियों के मण्डल में शुकदेव जी ऐसे शोभायमान है जैसे तारा गणों के बीच में चन्द्र सुशोभित होता है। शान्त स्वरूप, कुशाग्र बुद्धि, श्रीशुक देव जी से राजा परीक्षित, हाथ जोड़ कहने लगे, कि हे महर्षि! आज आपकी कृपा से मेरा जन्म सफल हो गया क्योंकि आपने अतिथि रूप से यहाँ आकर हमको पवित्र कर दिया है। हे महायोगिन !आपके निकट आने से बड़े-बड़े पातक नष्ट हो जाते हैं, जैसे विष्णु भगवान के सामने असुर नष्ट हो जाते हैं। जिनकी मृत्यु निकट आगई है उनको तो आप सरीखे सिद्ध और मन वाँछित फल देने वालों का दर्शन कदापि सम्भव न था क्योंकि अत्युदार होने से आप ये कह सकते हो कि जो तुमको अपेक्षित हो सो-सो हम से मांग लो। इस लिये हे योगी राज! मैं केवल आपसे पूछता हूँ कि जिनकी मृत्यु निकट आ पहुँची है उनको मोक्ष के लिए क्या करना उचित है। हे प्रभो ! ऐसे मनुष्यों को जो कुछ सुनना, जपना, पूजन करना, स्मरण करना, भजन करना, व अन्य काम करना चाहिए सो मुझसे कहो और जो कुछ नहीं करना हो सो भी कहो कि आसन्न मृत्यु वाले मनुष्यों को इतने कर्म नहीं करने चाहिए। हे ब्रह्मन् ! उत्तम गृहस्थी पुरुषों के घरों में आप अधिक इतनी देर ठहरते हैं जितने में गौ दोही जाती हैं सो भी केवल गृही के घरों पवित्र करने को। जब राजा परीक्षित ने बड़े मधुर वचनों से इस प्रकार प्रश्न किया तब भगवान शुकदेवजी इस तरह कहने लगे, सो द्वतीय स्कंध में कहेंगे।।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।༺═──────────────═༻

शुकदेव जी का राजा परीक्षित को आत्मज्ञान देना।।श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का उन्नीसवॉं आध्यय [स्कंध १]

तदन्तर सूत जी कहने लगे कि-राजा परीक्षित को घर पहुंचकर, चेत हुआ कि हाय हाय ! मैंने कैसा नीच कर्म किया। वह ऋषि तो निष्पाप और गूढ़तेज है । हाय ! यह मैंने किया ही क्या ? उसके गले में सांप लपेटा । इस नीच कर्म से मुझको प्रतीत होता है कि कोई बड़ी विपत्ति मुझ पर आने वाली है सो मैं चाहता हूं, कि वह विपत्ति मुझ पर शीघ्र आजाय तो अच्छा है जिससे मुझको योग्य शिक्षा मिल जाय, और मैं फिर कोई ऐसा अपराध न करू । राजा इस तरह शोक सागर में निमग्न था, उधर शमीक ऋषि ने अपना गौरमुख नाम शिष्य राजा के पास भेजा कि मेरे पुत्र ने तुमको शाप दिया है, कि आजके सातवें दिन तुमको तक्षक डसेगा उसे, उसीसे तुम्हारी मृत्यु होगी। राजा इस वाक्य को सुनकर तक्षक की विषाग्नि को बहुत उत्तम समझने लगा, क्योंकि यह अग्नि संसार की विषय वासना में फंसे हुए राजा को विरक्त का कारण होने से मोक्ष का कारण होगी। तदनन्तर जिन वस्तुओं के त्यागने का विचार राजा पहले ही कर चुका था उनको तथा इस लोक और उस लोक दोनों की वासना छोड़कर श्रीकृष्ण के चरणों में चित्त लगाकर निरहार व्रत साधन करने के लिए केवल आधी धोती औढ़े और पहने सर्वत्र त्यागकर गङ्गा तट पर जा बैठा। कौन ऐसा मनुष्य है जिसकी मृत्यु निकट आ पहुँची है और वह श्री गंगाजल का सेवन नहीं करता है। जो गंगा तुलसीदास और श्री कृष्ण की चरणरज वाली है जसे मिलकर अत्यन्त शोभायमान जल के बहाने और जिसका परम पवित्र जल महादेव आदिसे लेकर सब देवताओं को पवित्र करता है। उस समय परीक्षित को अन शन व्रत लेकर गंगा तट पर बैठा सुनकर बहुत से महानुभाव त्रिभुवन पवित्र करने वाले मुनि अपने अपने शिष्य वर्गों सहित संसार को पवित्र करते हुए तीर्थ यात्रा के मन से वहाँ आये। ये संत महात्मा अपने तीर्थों के विचार से स्वयं ही तीर्थों को पवित्र किया करते हैं।
किन किन ऋषियों ने श्री शुकदेव जी द्वारा किया भागवद पुराण श्रवण।।







इनमें अत्रि, वशिष्ठ च्यवन, अरियुमेमि,
भृगु, अंगिरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्र प्रमद, इध्वाह मेधातिथि, देवल, आष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्लाद, मैत्रैय, और्व, कवष, भगवान वेद व्यास और नारदादि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि, राजर्षि, तथा श्ररुणाबिक, अन्य बड़ बड़े महात्मा थे। राजा ने सबको पूजन करके उनको नमस्कार किया। जब ऋषि मुनि आनन्द पूर्वक सुख पूर्वक बैठे हुए, राजा ने फिर तो प्रणाम कर हाथ जोड़कर अपने मन की बात कहा हा हा ! मैं अत्यन्त धन्य हैं क्योंकि मेरे ऊपर सब महात्माओं ने ऐसी दया की है, मैं तो रात दिन विषय वासना में लीन मत्त की भांति अचेत था ऐसे मुझ पापी को भवसागर से बचाने के लिये साक्षात परम ब्रह्म ही ने ब्राह्मण के द्वारा शाप दिया है, जिससे मुझको शीघ्र ही चेत हो गया। हे ब्राह्मणों! इस बात को समझ लीजिये कि मैं सब छोड़कर भगवच्चरणों में चित्त लगाकर आप की और गंगा देवी की शरण हूँ । वह तक्षक आकर मुझको भले ही डस ले परन्तु आप लोग कृष्ण भगवान का संकीर्तन कीजिये जिससे अनन्त भगवान में मेरी प्रगाढ़ भक्ति होवे पर जिस योनि में मुझे जन्म लेना पड़े तहां साधू महात्माओं में मेरा स्नेह बना रहे। इस तरह ऋषियों के सामने अपना अभिप्राय प्रगट करके राजा गंगा जी के कहने किनारे पर पूर्वाभिमुख कुशा बिछाकर उत्तर की ओर मुख करके निश्चित होकर बैठ गया क्योंकि राज्य का भार तो पहले ही अपने पुत्र को दे आया था। जब राजा इस रीति से अनसन व्रत धारण किये है बैठा था तब स्वर्ग में बैठे हुए देवगण राजा की प्रसंसा करके पृथ्वी पर बार बार फूलों की वर्षा करने लगे और आनन्द के साथ दुन्दुभी बजाने लगे। वे परोपकार करने में मन रखने वाले सभी महात्मा राजा की बुद्धि और धैर्य की प्रशंशा करके उत्तमोत्तम गुणों से युक्त भगवान के गुणों को कहने लगे। हे राजऋषि ! यह आप में कुछ विचित्र बात कहीं है क्योंकि आप तो श्रीकृष्ण भगवान
के परम सेवक है। उस ही भगवचच्ण के निकट पहुँचने की इच्छा से अपने ऐसे राज सिंहासन को शीघ्र त्याग दिया जिसको बड़े महिपाल सिर नवाते हैं । ऐसे कहकर सब ऋषि मुनि आपस सलाह करने लगे। जब तक भगवद्ध तो में प्रधान यह राजा अपने इस राह को त्यागकर शोक मोहादि रहित वैकुण्ठ लोक को न चला जाय, तब तक हम यही बैठे रहेंगे। तब तो राजा परी क्षित उस अमृतमय, गम्भोर, अर्थ युक्त, पक्षपात रहित ऋषि लोगों की सत्य वाणी को सुनकर नमस्कार करके बोले, मुनिवर! आपको परोपकार के अतिरिक्त और कोई दूसरा काम ही नहीं है इस लोक और उस लोक में केवल परोपकार करना ही आपका स्वभाव है । हे विभो! इसी बात पर विश्वास करके पूछने के योग्य बात मैं पूछता हूँ कि जिस मनुष्य की मृत्यु निकट आ पहुँची है उस को क्या करना चाहिये। उस शुद्ध कृत्य को श्राप लोग विचार कर मेरे सामने कहिये । राजा के इस प्रश्न को सुनकर मुनि आपस में विवाद करने लगे। कोई तो कहता था यज्ञ करना चाहिये, कोई तप करने के लिए कहता था इसी तरह कोई दान, कोई धर्म और कोई योग करना बतलाता था । इस तरह यहां तो विवाद हो ही रहा था, इतने ही में दैव योग से पृथ्वी पर विचरते हुए अपेक्षा से हीन आश्रमों के चिह्नों से रहित और अपने आत्मा में सन्तुष्ट व्यासजी के पुत्र शुकदेव जी चले आये। बहुत से स्त्री बालक इनको चारों ओर से घेरे हुए चले आते थे और आपने अवधूत का वेश भारण कर रखा था। शुकदेव जी की अवस्था केवल सोलह वर्ष की थो शंख के समान त्रिवली युक्त कण्ठ था। वक्षस्थल बहुत ऊँचा और चौड़ा था,नाभि बहुत गंभीर और पीपल के दल के समान मस्तक पर त्रिवली पड़ी थी शरीर पर कोई कोपीन तक न थी। बाल घुघुर वाले चारों ओर बिखर रहे थे। जानुपर्यन्त लम्बी - लम्बी भुजा श्री नारायण के समान कान्तिमान थे । शरीर का श्यामवर्ण अत्यन्त ही मनोहर था, उनकी युवा अवस्था शरीर की
कान्ति और मन्द मुस्कान देखकर स्त्री मोहित हो जाती थी। ऐसे तेजयुक्त शुकदेव जी को आया है देखकर मुनि लोग सत्कार के लिये अपने आसनों से उठ खड़े हो। तब राजा आये हुए अतिथि श्री शुकदेवजी का अतिथि सत्कार करके चरणों में शिर झुकाकर उनको एक बड़े ऊँचे आसन पर ले गये और पूजा की। उस समय सब अज्ञानी बालक पुरुष चले गये थे। वहाँ उन बड़े-बड़े देवऋषि, राजऋषि, ब्रह्मर्षि आदि अनेक ऋषि महर्षियों के मण्डल में शुकदेव जी ऐसे शोभायमान है जैसे तारा गणों के बीच में चन्द्र सुशोभित होता है। शान्त स्वरूप, कुशाग्र बुद्धि, श्रीशुक देव जी से राजा परीक्षित, हाथ जोड़ कहने लगे, कि हे महर्षि! आज आपकी कृपा से मेरा जन्म सफल हो गया क्योंकि आपने अतिथि रूप से यहाँ आकर हमको पवित्र कर दिया है। हे महायोगिन !
आपके निकट आने से बड़े-बड़े पातक नष्ट हो जाते हैं, जैसे विष्णु भगवान के सामने असुर नष्ट हो जाते हैं। जिनकी मृत्यु निकट आगई है उनको तो आप सरीखे सिद्ध और मन वाँछित फल देने वालों का दर्शन कदापि सम्भव न था क्योंकि अत्युदार होने से आप ये कह सकते हो कि जो तुमको अपेक्षित हो सो-सो हम से मांग लो। इस लिये हे योगी राज! मैं केवल आपसे पूछता हूँ कि जिनकी मृत्यु निकट आ पहुँची है उनको मोक्ष के लिए क्या करना उचित है। हे प्रभो ! ऐसे मनुष्यों को जो कुछ सुनना, जपना, पूजन करना, स्मरण करना, भजन करना, व अन्य काम करना चाहिए सो मुझसे कहो और जो कुछ नहीं करना हो सो भी कहो कि आसन्न मृत्यु वाले मनुष्यों को इतने कर्म नहीं करने चाहिए। हे ब्रह्मन् ! उत्तम गृहस्थी पुरुषों के घरों में आप अधिक इतनी देर ठहरते हैं जितने में गौ दोही जाती हैं सो भी केवल गृही के घरों पवित्र करने को। जब राजा परीक्षित ने बड़े मधुर वचनों से इस प्रकार प्रश्न किया तब भगवान शुकदेवजी इस तरह कहने लगे, सो द्वतीय स्कंध में कहेंगे।







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