सर्ग-विसर्ग द्वारा सृष्टि निर्माण एवं व्याख्या।।

श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १० [स्कंध३]

सर्ग की व्याख्या

हिन्दू धर्म में सर्ग, उन कोशिकाओं (cell) को कहा गया है, जिन जोड़कर विश्वा का, प्रजा का, मनुष्यआदि जीवों की उत्त्पत्ति हुई। विभिन्न प्रकार के कोशिकाओं से विभिन्न जीव उत्त्पन हुए। इसी तरह, विभिन्न प्रकृति, विभिन्न बुद्धि, विभीन्न आकृति, और विभिन्न लोकों का भी निर्माण हुआ। आम भाषा में cell को सर्ग कहा गया है।

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सृष्टि की वन्स विधि वर्णन

दोहा-सृष्टि रचना जिस तरह, बृह्मा करी बनाय ।

सो दसवें अध्याय में वर्णी सहित उपाय ||

सर्ग की व्याख्या हिन्दू धर्म में सर्ग, उन कोशिकाओं (cell) को कहा गया है, जिन जोड़कर विश्वा का, प्रजा का, मनुष्यआदि जीवों की उत्त्पत्ति हुई। विभिन्न प्रकार के कोशिकाओं से विभिन्न जीव उत्त्पन हुए। इसी तरह, विभिन्न प्रकृति, विभिन्न बुद्धि, विभीन्न आकृति, और विभिन्न लोकों का भी निर्माण हुआ। आम भाषा में cell को सर्ग कहा गया है।


श्री  शुकदेवजी बोले हे परीक्षत बिष्णु और वृह्मा का यह
प्रसंग कहने के पश्चात मैत्रेय जी ने विदुर जी से इस प्रकार कहा
- हे विदुर जी! वृह्मा जी ने फिर दिव्य सौ वर्ष तक मन लगा कर
घोर तप किया। भगवत इच्छा से कर्म प्रेरित किये वृम्हा ने उस
कमल परस्थित कमल नाल का त्रिलोकी रूप तथा चौदह भुवन
रूप और अन्य प्रकार से विभाग किया। प्रथम वृम्हा जी ने काल
की रचना की फिर उसी काल को निमित्त कर के परमात्मा को
आत्मा को ही लीलामय करके विश्व रूप की रचना की । यह
विश्व का नौ प्रकार का सर्ग है, जिसके दो प्रकार हैं प्राकृतिक और
वैकृत इन दोनों में वैकृत दसवाँ सर्ग हैं, इनका लय इसके नित्य
नैमित्तिक, प्राकृतिक यह तीन नाम हैं। जो प्रलय काल से होता
है उसे नित्य प्रलय कहते हैं और जो संकर्षण को अग्नि रूप द्रव्य
से प्रलय होता है उसे नैमित्तिक प्रलय कहते हैं, और जो अपने
अपने कर्मो के गृसने वाले गुणों से प्रलय होवे बह प्राकृतिक प्रलय
कही जाती है। 

दश सर्गों का वर्णन।।

अब दश सर्गों का वर्णन कहते हैं। प्रथम सर्ग
महतत्व का सर्ग है, जो महतत्व का स्वरूप कहलाता है, । दूसरा
द्रव्य ज्ञान का रूप है जो अहंकार का सर्ग कहा जाता है। जिस
में पंच महाभूत अपनी तन्मात्रा सहित उत्पन्न होते हैं वह तीसरा
भूत सर्ग है। जहाँ ज्ञानेद्रिय, तथा कर्मेन्द्रिय, तथा उत्पन्न होती हैं
वह इन्द्रियों का चौथा सर्ग हैं। जहाँ सात्विक अहंकारवाला मन
तथा इन्द्रियाधिष्ठाता होते हैं वह पाँचवाँ वैकारिक देव सर्ग है।
छटवा सर्ग तमोगुण का है जो पंच पर्वो अविद्या जीवों के अत्वरण
विक्षेप करन वाली उत्पन्न हुई है छःप्राकृत सर्ग है । अब वैकृतिक
सर्ग का वर्णन करते हैं । जो बुद्धि ईश्वर में धारण करती है और
संसार का आवागमन मिटा देती है उस रजो गुण को भजने वाली
यह ईश्वर की लीला है। और (अन्य) स्थावरों का सर्ग छ
प्रकार का होता है। और जो सातवाँ सर्ग है उसे मुख्य सर्ग हैं।
जो वनस्पति बिना फूल के फलै, और बह जिसका नाश फल पकने से हो वह औषधि है। किसी के सहारे चलने वाली लता आदि आत्वकतार, जो लता होकर भी कठिन्य धर्म के निमित्त से प्राश्रयान क्षेप होवे वीरुद्ध और प्रथम फूल आकर फिर फले वह द्रमक
होते हैं । आठवां सर्ग पशु पक्षियों का होता है जो कि अट्ठाईस
प्रकार का है। हे विदुरजी ! अब मैं आपके सामने उन अट्टाईस
भेदों को प्रगट करता हूँ। इनमें एक तो चिरे हुये दो खुरों वाले
पशु हैं जिनमें भेड़, सूकर, भैसा, गौ, बकरा, काला हिरण,रूरूमृग, और ऊँट हैं। दूसरे एक खुर वाले पशु हैं-गन्दर्भ, खच्चर,
शरभ, चमरी गौ, गौर मृग, घोड़ा हैं। इसके अलावा पाँच नख
वाले पशु हैं जिनमें प्रमुख कुत्ता, भेड़िया, विलाव, सेही, बन्दर,
कछुआ, मगर, सियार, व्याघ, ससा, सिंह हाथी, गोह, आदि इन
तेरह पशुओं के नख हैं। अब पक्षियों के विषय में कहते हैं-कौआ
बगुला, अरुण शिखा, हंस, चकवा, उल्लू, गीध, मोर,सारस सफेद
कौआ, आदि ये पक्षी हैं। हे विदुरजी ! जिनका प्राहार नोचेको
ओर भाव है ऐसा एक प्रकार का मनुष्य ही हैं जिसका नवाँ सर्ग
कहा है। इसके अतिरिक्त सनत्कुमारों का सर्ग प्राकृत और वैकृत
दोनों प्रकार का वर्णन किया है। इसके अलावा देव सर्ग आठ
प्रकार का कहा है। तथा विवुध, असुर, अप्सरा, यक्ष, चारण,
विद्याधर, किन्नर, भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, सिद्ध, गन्धर्व,
पितर आदि ये वृह्मा द्वारा निर्मित दस कहे हैं। इस प्रकार जगत
को निर्माण करने वाला बृह्म रजोगुण मुक्त कल्पादि में
सकल संकल्प वाला कल्प के आदि में आप ही अपने स्वरूप
करके आत्मा को रचना करता है।

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